सरकारी दफ्तरों में कुछ पत्रकारों का कब्ज़ा, पीड़ित दर-दर भटकने को मजबूर!
हल्द्वानी के सरकारी दफ्तरों में इन दिनों अजीब नजारा देखने को मिल रहा है। यहां अपनी समस्याओं के समाधान के लिए आए पीड़ितों से ज्यादा पत्रकारों की भीड़ देखने को मिल रही है। सरकारी दफ्तर अब पत्रकारों के बैठने और आराम करने की जगह बनते जा रहे हैं, जिससे पीड़ितों को इंसाफ मिलने में देरी हो रही है।
‘बिना खर्चे खबर नहीं चलेगी!’ – प्रेस कॉन्फ्रेंस के नए नियम!
अब अगर कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस कराना चाहता है, तो उसे सिर्फ सूचना देना ही काफी नहीं होगा। खाने-पीने से लेकर महंगे गिफ्ट तक का इंतजाम करना अनिवार्य हो गया है। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो खबर चलने की संभावना बेहद कम हो जाती है।क्या अब मीडिया का काम जनता की आवाज़ उठाने के बजाय पैसे लेकर खबरें दिखाना रह गया है?
हल्द्वानी में पत्रकारिता से ज्यादा संगठन बनाने की होड़ लगी हुई है। हर कोई अपना संगठन बना रहा है, लेकिन एक-दूसरे के खिलाफ ही काम कर रहे हैं। ऐसे में पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर सवाल उठना लाज़मी है।
एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया, “अब पत्रकारिता से ज्यादा लोगों का ध्यान खुद को नेता बनाने पर है।”
सोशल मीडिया ने खोली पोल! बड़े पत्रकार भी हो रहे मजबूर!
मीडिया की गिरती साख के चलते अब जनता ने अपना रुख सोशल मीडिया की तरफ कर लिया है। बड़े-बड़े पत्रकार भी अब डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर मजबूरी में सक्रिय हो रहे हैं।यही वजह है कि अब अख़बार वा यूट्यूब, फेसबुक और ट्विटर पर वायरल हो रही खबरों को लोग ज़्यादा सच मान रहे हैं।
खोजी पत्रकारिता का अंत! अब सिर्फ सरकारी प्रेस नोट पर निर्भरता!
पहले पत्रकारिता घोटाले उजागर करने के लिए जानी जाती थी, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। आज ज्यादातर पत्रकार सिर्फ सरकारी प्रेस नोट और सूचना विभाग के भरोसे हैं।क्या अब सरकारी दफ्तरों में सब कुछ सही चल रहा है? या फिर पत्रकारों ने सरकारी अफसरों से नजदीकियां बढ़ाकर सच छिपाने का ठेका ले लिया है?
सरकारी अधिकारियों से नजदीकी, तो निष्पक्षता कहां?
जब पत्रकार और सरकारी अधिकारी मित्रता करेंगे, तो क्या पत्रकार सरकार की कमियों को उजागर कर पाएंगे? यही कारण है कि अब प्रशासनिक लापरवाहियों पर रिपोर्टिंग कम हो गई है। सरकारी अधिकारियों के साथ अच्छे संबंध बनाकर पत्रकार अब फायदा उठाने में लगे हैं, जिससे निष्पक्ष पत्रकारिता कमजोर हो रही है।
जनता का भरोसा उठा! अब बदलाव जरूरी!
इन तमाम वजहों से जनता का मीडिया से भरोसा उठता जा रहा है। लोग अब खुद से जानकारी इकट्ठा करने लगे हैं और सोशल मीडिया पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं।अब वक्त आ गया है कि पत्रकारिता को फिर से निष्पक्ष और जनता की आवाज़ बनाया जाए। वरना वह दिन दूर नहीं जब लोग मीडिया को पूरी तरह नकार देंगे।
क्या चौथा स्तंभ अपनी विश्वसनीयता खो रहा है?
अब जनता को समझ आने लगा है कि ‘पेड न्यूज’ क्या होती है। मीडिया के इस गिरते स्तर को देखकर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है—क्या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जनता की नजरों में अपनी विश्वसनीयता खो रहा है?
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